Friday, August 28, 2009

छोटी सी है चाहत

बनाने में हमें,
क्यों की तुमने साजिश,
देकर कटी हुई पंख,
भर दी ऊँचा उड़ने की ख्वाहिश,
थामना चाहती हूँ मै
असमान का दामन,
बिताना चाहती हूँ
पंछियों के संग बचपन,
बहक जाता है मन
अक़्सर बादलों से मिलकर ,
चाहती हूँ मुस्कुराना ,
बिल्कुल फूलों सी खिलकर
छूकर गगन को मै,
चांदनी का आलिंगन चाहती हूँ,
जहाँ का चाँद हो बस मेरा,
वो नीला गगन चाहती हूँ,
मगर ये जो चाहत है मेरी,
जागती आँखों का सपना,
है बिल्कुल ही वैसे जैसे,
कागज के फूलों का खिलना,
बढ़ना है मुझे ,
एक ज्वाला से बचकर,
गुजरना है मुझे,
राहों के काँटों से संभलकर
न खोना है ख़ुद को
ख्वाबों के जालों में,
रखना है ख़ुद को बचाकर,
दुनिया के सवालों से,
अब तो बस इतनी सी है चाहत
अपने हिस्से की जमीन और अस्मा मांग लाऊं,
अनंत को मान लूँ सीमा,
क्षितिज तक भी पहुंच जाऊँ

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